Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--6

देवदास


तब तुमने क्या सोचा है?’ उपाय की बात वह स्वयं नही जानती थी, फिर दूसरे से क्या कहेगी? आज कई दिनो से वह बराबर इसी बात को सोचती रहती है, किंतु किसी प्रकार यह स्थिर नही कर सकी कि उसकी आशा कितनी और निराशा कितनी है। जब मनुष्य ऐसे दुख के समय मे आशा-निराशा का किनारा नही देखता, तो उसके दुर्बल हृदय बड़े भय से आशा का पल्ला पकड़ता है। जिसमे उसका मंगल रहता है, उसी बात की आशा करता है। इच्छा व अनिच्छा से उसी ओर नितांत उत्सुक नयन से

देखता है। पार्वती को अपनी इस दशा मे यह पूरी आशा थी कि कल रात को व्यापार के कारण वह निश्चय ही विफल -मनोरथ न होगी। विफल होने पर उसकी अवस्था क्या होगी, यह उसके ध्यान के बाहर की बात है। इसी से सोचती थी देवदास फिर आयेगे। फिर मुझे बुलाकर कहेगे- पत्तो, तुम्हे मै शक्ति रहते किसी तरह दूसरे के हाथ न जाने दूंगा। किंतु दो दिन बाद पार्वती ने निम्नलिखित पत्र आया‘पार्वती, आज दो दिन से बराबर तुम्हारी बाते सोच रहा हूं। माता-पिता की भी यह इच्छा नही है कि हमारी तुम्हारे साथ विवाह हो। तुमको सुखी करने मे उन लोगो को ऐसी कठिन वेदना पहुंचानी होगी, जो मुझसे नही हो सकती। अतएव उनके विरुद्ध यह काम कर कैसे सकता हूं? तुम्हे संभवतः अब आगे पत्र लिख सकूंगा, इसलिए इस पत्र मेसब बाते खोलकर लिखता हू। तुम्हारा घराना नीच है। कन्या बेचने और खरीदने वाले घर की लड़की मां किसी भी घर मे नही ला सकती। फिर घर के पास ही तुम्हारा कुटुंब ठहरा, यह भी उनके मत से ठीक नही है। रही बाबू जी की बात, वह तो तुम सभी जानती हो। उस रात की बात सोचकर मुझे बहुत ही दुख होता है। तुम्हारी, जैसी अभिमानिनी लड़की ने वह काम कितनी बड़ी व्यथा पाने पर किया होगा, यह मै अच्छी तरह जानता हूं।

‘और भी एक बात है। तुमको मैने कभी ह्रश्वयार किया हो, यह बात मेरे मन मे नही उठती। आज भी तुम्हारे लिए मेरे हृदय मे कुछ अत्यधिक क्लेश नही है। केवल इसी का मुझे दुख है कि तुम मेरे लिए कष्ट पा रही हो। मुझे भूल जाने की चेष्टा करो। यही मेरा आंतरिक आशीर्वाद है कि तुम इसमे सफल हो।

देवदास-’

जब तक देवदास ने पत्र डाक-घर मे नही छोड़ा था, तब तक केवल एक बात सोचते रहे, किंतु पत्र रवाना करने के बाद ही दूसरी बात सोचने लगे। हाथ का ढेला फेककर वे एकटक उसी ओर देखते रहे।

किसी अनिष्ट की आशंका उनके मन मे धीरे-धीरे उठने लगी। वे सोचते थे कि यह ढेला उसके सिर पर जाकर कैसा लगेगा? क्या जोर से लगेगा? जिंदा तो बचेगी? उस रात मेरे पांव पर अपना सिर रखकर वह कितनी रोती थी। पोस्ट ऑफिस से मैस लौटते समय रासते मे पद-पद पर देवदास के मन मे यही भाव उठने लगा। यह काम क्या अच्छा नही हुआ? और सबसे बउ़ी बात देवदास यह सोचते थे कि पार्वती

मे जब कोई दोष नही है, तो फिर माता-पिता क्यो निषेध करते है? उम्र बढ़ने के साथ और कलकत्तानिवास से उन्होने एक बात यह सीखी थी कि केवल लोगो को दिखाने के लिए कुल-मर्यादा और एक क्षुद्र विचार के ऊपर होकर निरर्थक एक प्राण का नाश करना ठीक नही। यदि पार्वती हृदय की ज्वाला को शांत करने के लिए जल मे डूब मरे, तो क्या विश्व-पिता के पांव मे इस महापातक का एक काला धब्बा नही पड़ेगा?

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